Untitled Document
Untitled Document
Untitled Document
एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 गीत-सरिता : शून्य और सृष्टि

शून्य में से शून्य घटकर

शून्य ही रहता है शेष

है समायी सृष्टि जिसमें

शून्य की महिमा विशेष

 

शून्य से होकर प्रकट सब

शून्य में मिलता सदा

सब रहस्यों की धरा पर

शून्य ही खिलता सदा

 

शून्य की आकृति में ही

रवि-शशि सभी नक्षत्र  है

और ये जल विन्दु भी सब

शून्य के ही पत्र है

 

शून्य मे जब शून्य जोड़ा

शून्य ही परिणाम है

शून्य का आकार है

जिसका कि वसुधा नाम है

 

शून्य था सीपी के भीतर

शून्य से इक बूँद आयी

बनके मोती शून्य रुपा

बूँद ने पहचान पायी

 

हैं व्यवस्थित शून्य में

तारे असंख्य निहारिकाएँ

धूमकेतु हो कि उल्का

शून्य के चक्कर लगाएँ

 

ओस की हर बूँद प्रात:

करती मानव ओर इंगित

अहंकारी   जीव    तेरा

शून्य से अस्तित्व निर्मित

 

कर गुणा शून्य में शून्य

शून्य ही शेष बचता

मानकर सिद्धांत इसको

ईश भी यह सृष्टि रचता

 

शून्य सागर ले हिलोरें

डूबकर मिलती है राहत

हैं सभी है बेचैन, सबको

शून्य को पाने की चाहत

 

नेति-नेति मुनि कह गये सब

शून्य शाश्वत औ सनातन

विश्व के निर्माण से भी

शून्य का उदभव पुरातन

 

है अँधेरा शून्य का गुण

शून्य उदगम ज्योति का

शून्य हर पल दे रहा है

ज्ञान ध्वनि के स्रोत का

 

तत्व वह परमात्म इक है

शून्य जिसमे समाया

कोई बिरला ही जगत में

शून्य को पहचान पाया

 

समझ लेंगे हम इसे जब

शान्ति यह मन पायेगा

करके पीछा शून्य का तो

शून्य में मिल जायेगा

 

है परे जो इन्द्रियों से

तत्व का तुम ज्ञान दो

छीनकर अज्ञान मेरा

अब मेरी पह्चान दो

 

आ रही हर पल से

यह मधुर आवाज है

कोई तो मुझको बताए

कौन सा वह साज है

 

दो मुझे वह ज्ञान जिससे

शून्य को मै जान पाऊँ

पीके अमृत ज्ञान अब

शून्य से मै पार जाऊ



ifjp; ! eq[ki`"V ! vuqHko dh /kkjk ! izSl ! viuks dh utj esa ! laLej.k ! lEidZ
lokZf/kkdkj lqjf{kr 2006 A bZesy : mail@gajendersolanki.com