मुक्तक - 1  
  मुक्तक - 2  
  मुक्तक - 3  
  मुक्तक - 4  
  मुक्तक - 5  
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
 

 

 
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
 मुक्तक
 
कोई कहता है दुनिया में ये दौलत ही शराफत है
कोई कहता है दुनिया में ये दौलत ही हिफाजत है
गयी है पास जिसके इक अदा सी बन गयी यारो
सच मानो जमाने में ये दौलत ही नजाकत है यारो

उजालों से अंधेरों ने ये क्या बदला लिया यारों
वो इक मासूम मौसम था जिसे दहला दिया यारों
गले मिलने दीवाली संग खुशी से ईद आयी थी
दरिन्दों ने उन्हें भी खून से नहला दिया यारों

भला कब तलक हिन्दुस्तान से किस्मत यूं रूठेगी
कभी तो नफरतों वाली कंटीली राह छूटेगी
भला मज़हब बदलने से कहीं रिश्ते बदलते है
पुकारेगा लहू जिस दिन हरेक दीवार टूटेगी

कभी अंधियार को उजियार कहना सीख ना पाया
गंगा जल हूँ नालो संग बहना सीख ना पाया
जुबां पे प्यार के नग्में दिलों में नफरती दलदल
मैं ऐसे दोस्तों के संग रहना सीख ना पाया

समझ पाया नहीं ‘मरुथल मे’ कैसे गुल खिलाते हैं
मिलते जब नहीं दिल कैसे हाथों को मिलाते हैं
जो सौदागर गुनाहों के भला उम्मीद क्या उनसे
ज़हर चुपके से नफरत का जो दुनियां को पिलाते हैं