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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
  मुक्तक - 1  
  मुक्तक - 2  
  मुक्तक - 3  
  मुक्तक - 4  
  मुक्तक - 5  
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
 

 

 
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
 मुक्तक
 

न वो इकरार करते हैं औ न इंकार करते हैं

वो जब भी सामने आते है तो बस तकरार करते हैं

ये उनकी बेरूखी है या कि अन्दाजे मौहब्बत हैं

कोई उनको बताये हम तो उनसे प्यार करते हैं


गमों का दौर गर आये नहीं पलकें भिगौना तुम

अंधेरा हो घना कितना नहीं बेआस होना तुम

भले दुनियां बने दुश्मन मुकद्दर ले नहीं सकती

पराई पीर सहकर भी गमों का बोझ ढोना तुम


जो रोशन कर रहे थे वो सभी दीपक बुझाये हैं

हुए हैवान क्यू इंसान शैतां भी लजाये हैं

हैं सहमें दीप दीवाली के होली खून से लथपथ

हरेक त्यौहार पर अब तो यहाँ दहशत के साये हैं


मिले कुछ भी जमाने के लिए नासूर मत होना

उड़ो नभ में भले कितना धरा से दूर मत होना

बदलते वक्त के तेवर कहां कोई समझ पाया

कभी मशहूरियों के दौर में मगरूर मत होना


दिलों के बीच दूरी से बड़ी दूरी नहीं होती

गरीबी से बड़ी कोई भी मजबूरी नहीं होती

कभी कोई सिकन्दर हो कि अफलातून ने चाही

तमन्ना हर किसी की हर समय पूरी नहीं होती

 

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