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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 छन्द-निर्झर : कितने दधीचियों ने अस्थियों का दिया दान

कितने दधीचियों ने अस्थियों क दिया दान

कितने तपस्वियों का मिला वरदान है

कितने ही दिनकर उदित हुए हैं यहाँ

अँधेरों पे जिनका ये विजय-अभियान है

तम के सितम से न हार जाए उजियारा

नये युग का ये नयी क्रान्ति को आह्वान है

भारत के वासियों! तुम्हारे ही हाथों में अब

मातु भारती की आन-बान और शान


 
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