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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 छन्द-निर्झर : महकती मारीशस माटी को प्रणाम

भारत की भाषा और संस्कृति को संजोए

दिव्य औ अमिट परिपाटी को प्रणाम है

अवधी की चौपाईयां भोजपुरी लोकगीत

कबिरा की साखी की लुकाटी को प्रणाम है

जिसको दयाल बन्धुओं ने सुरभित किया

घट घट बसी हिन्दी घाटी को प्रणाम है

सैकणों बरस खून औ पसीने से जो सींची

महकती मारीशस माटी को प्रणाम है


 
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