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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 छन्द-निर्झर : शत्रु-नाश-हेतु काल विकराल हम है

अवतारों, शूर-वीरों के हैं अनुचर हम

सूफी, सन्त, पीरों की भी हम सरगम हैं

राम, कृष्ण, महावीर, की ही हैं सौगन्ध हम

बुद्ध और नानक की हम ही कसम है

राणा औ’ शिवाज़ी,गुरु गोविन्द के वंशज हैं

जानता है जग हम किसी से न कम हैं

शान्ति ओ’ अहिंसा भले नीति-रीति हो हमारी

शत्रु-नाश-हेतु काल विकराल हम हैं

 


 
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