Untitled Document
Untitled Document
Untitled Document
एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 छन्द-निर्झर : वाणी–वन्दना

मातु हंसवाहिनी , प्रदीप्त ज्ञान्दायिनी माँ

मेरे प्यारे भारत को ऐसा वरदान दे

हर घर – आँगन में खुशियों के फूल खिलें

विश्व-गुरु भारत की खोई आन-बान दे

दैवी आपदाओं से माँ करना सुरक्षा सदा

भ्रष्ट-दुष्ट पापियों को भी तू सद्गज्ञान दे

कवियों की कविता हो लोक- कल्याणकारी

हर भारतीय को असीम स्वाभिमान दे

 

एकता, अखण्डता का सुर चारों ओर उठे

जन-गण- मन को वीणा की ऐसी तान दे

सारी ये वसुन्धरा ही बन जाये तीर्थ-धाम

शक्ति और भक्ति का अमर दिव्य-दान दे

सागर-सा धैर्य और चिन्तन विशाल, मातु

लक्ष्य के विधान-हेतु साधना दे ज्ञान दे

भाँति-भाँति के सुमन महकाएँ देवभूमि

राम-कृष्ण जैसे महापुरूष महान

हैं


 
Untitled Document
परिचय | मुखपृष्ठ | अनुभव की धारा | प्रैस | अपनों की नजर में | संस्मरण | सम्पर्क
सर्वाधिकार सुरक्षित © २०१० ईमेल : mail@gajendersolanki.com