ना मैं छंदों का सौदागर ना ही गीतों का व्यापारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी अमर क्रान्ति की आग़ लिखूँ या खुशियों की मल्हार सुनाऊ छदम वेषधारी पुतलों को कैसे मैं देखूँ हरषाऊँ बढते ही ज़ाते कुचक्र जब सत्ता लोलुप शैतानों के स्वार्थों के खूनी दलदल में कैसे गीतों को नहलाऊँ कदम-कदम पर नर पिशाच हैं दानवता का ताण्डव जारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी लगते पहरे मुस्कानों पर खिड़की-दरवाजे हैं घायल सहमे-सहमे खेल-खिलौने चीख-चीख रोती हैं पायल अंधकार बढता ही जाता गली-गाँव औ’ नगर-नगर में मानव से डरती मानवता रोता धरती माँ का आँचल कैसे खुशी मनाऊँ भैया जब तक मानवता दुखियारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी सावन प्यासा, भादों प्यासा यौवन का पनघट प्यासा है आशा प्यासी, सपने प्यासे जीवन का मधुबन प्यासा है जनसंख्या का दानव बनकर भस्मासुर बढता जाता है निगल रहा वन, गाँव, जलाशय माटी का कण-कण प्यासा है इस माटी की प्यास बुझाओ बनकर कलियुग के अवतारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी रोंती गंगा, यमुना, सरयू ब्रह्मपुत्र, कावेरी रोती रोती सतलुज, व्यास, घाघरा झेलम, कृष्णा, रावी रोतीं फैंल रहा विष अंग-अंग में पर पी-जीकर बहती जातीं सागर की उत्ताल तरंगे पटक-पटक सर तट पर रोंती हुए विषैले जल-थल-अम्बर महाप्रलय की है तैयारी हृदय-वेदना सुना रहा हुँ मैं मानव का प्रेम पुजारी ना चाहे मन चाँद-सितारे ना नवयुग का स्वर्ण-सवेरा मन तो चाहे हट जाये बस अन्तहीन घनघोर अँधेरा ना चाहे मन सोना-चाँदी नही लालसा राजमहल की मत दो मुझको विष आशा का दो केवल अधिकार जो मेरा माली बन सीचों बगिया को होगा जन-गण-मन बलिहारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी राष्ट्र पुन: हो विश्व-गुरु अब अभिनव बेला का अभिनंदन दिव्य-ज्योति से भावों की हो पल-पल राष्ट्रदेव का वंदन मिटे स्वार्थ का अंधकार अब स्वाभिमान का हो उजियारा मिला शक्ति वरदान हमें, हम जग को दें मैत्रेयी स्पंदन श्रीयुक्त माटी पग-पग हो करें स्वर्ण-युग की तैयारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी हम हैं वीर शिवा के वंशज हम राणा के स्वाभिमान हैं चन्द्र्गुप्त, चाणक्य-प्रतिज्ञा के अभिनव शक्ति-विधान हैं हम से ही भारत का गौरव हम ही इस उपवन के माली भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के सपनों के हमीं प्रान हैं भस्म करें अब अतिचारों को होगी धरती माँ आभारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मैं मानव का प्रेम पुजारी पूरब जागो! पश्चिम जागो जागो! हे हिमगिरि के वासी उत्तर जागो! दक्खिन जागो! जागो! विन्ध्याचल वनवासी जाति, धर्म, भाषा के बंधन तोड़ के नवयुग में हैं जाना पर्वत, घाटी, जंगल जागो ! जागो! रामेश्वर और काशी है अन्तिम आह्वान धरा का शायद फिर ना आये बारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ ओ वीरों के वंशज जागो जागो पौरुष के अवतारों कोटि-कोटि शिव शंकर जागो जागो शोणित के अंगारो करो प्रकाशित दसों दिशाएँ बनकर तुम नवयुग के दिनकर क्रान्तिवीर प्रलयंकर जागो जागो नवनूतन उजियारो बेला है यह बलिदानों की कर दो दूर निशा अँधियारी हृदय वेदना सुना रहा हूँ मै मानव का प्रेम पुजारी
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