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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 गीत-सरिता : ॠतु-मिलन

ॠतुओं का यह चक्र निरन्तर

निशि-दिन घूम रहा सदियों से

शीत,ग्रीष्म और वर्षा आकर

करती आनन्दित सदियों से

 

हेम, वसन्त औ पतझड़ आकर

परिवर्तन-संगीत सुनाते

समय चक्र के साथ-साथ चल

हम भी जीवन गीत सुनाते

 

ग्रीष्म ॠतु निर्दयी-सी बन के

ज्यों क्रोधित होकर आयी थी

अपने अस्त्र-शस्त्र के सँग़

सर्वविनाश करने आयी थी

 

ठहर गया था समय-चक्र ज्यों

करने महाप्रलय का दर्शन

सहमी-सी थी वर्षा रानी

कैसे होगा ॠतु परिवर्तन

 

भानुकला के प्रबल तेज से

माँ वसुधा विह्वल व्याकुल थी

क्रोध चरम पर था आतप का

आकुलता बढती पल-पल थी

 

तड़प उठा था जीव जगत सब

सूख रहे थे वन औ उपवन

उष्ण तीव्र बहती पवनों से

मुरझायें थे कलियों के तन

 

कुपित ग्रीष्म का था प्रकोप वह

ताल,कूप सब सूख चले थे

बिन पानी तड़पी हर मछली

हर तरुवर के पात जले थे

 

व्याकुल थे दिकपाल सकल औ

सारी वसुधा चीख उठी थी

तरुवर थे बेचैन, भीत-से

शीतलता भी लुटी-लुटी थी

 

भी ग्रीष्म के कुपित हृदय में

एक दया का अँकुर फूटा

पहिया ॠतुओं का घूमा फिर

मानो बुरा स्वपन हो टूटा

 

रोमांचित वर्षा रानी ने

अपने कदम बढाये आगे

दो ॠतुओं का मधुर मिलन तब

देखने मेंढक नींद से जागे

 

वर्षा रानी के स्वागत हित

प्रकृति हुई आनन्दित भारी   

उमड़-उमड़ घन गरजत आये

नाचे मोर, छटा थी न्यारी

 

शीतल पवन तभी भर लायी

रिमझिम संदेशा वर्षा का

देख उल्लसित जीव हृदय को

मन भी हर्षा था वर्षा का

 

हुए प्रतीक्षा के पल पूरे

मधुर मिलन की बेला आयी

आलिंगन को तभी ग्रीष्म से

वर्षा ने इक पेंग बढाई

 

रिमझिम-रिमझिम आँसू झरते

वर्षा की आँखे नम झिलमिल

शान्त ग्रीष्माकोश हुआ तब

गीत प्रेम का गाती हिलमिल

 

झूम-झूम वृक्षों ने किया फिर

आगन्तुक वर्षा का स्वागत

इन्द्रदेव भी आ पहुँचे थे

ले अपना वाहन ऐरावत

 

शनै: शनै: ले मेघों का रथ

नील गगन में बढे वो आगे

रजनीबाला भी आ पहुँची

और रात्रि-प्रहरी सब जागे

 

अति विभोर सब जलचर,थलचर

गीत खुशी के सुना रहे थे

टर-टर मेंढक ताल पे झिंगुर

रुन-झुन कर गुनगुना रहे थे

 

ॠतुओं के इस खेल में पाया

जीवन का अदभुत नव अनुभव

नृत्य कर उठा मन मयऊर सम

सुनकर मनमोहक खग-कलरव

 

शीतलता थी मुझे सुहाती

मादक मौसम मुझे लभाता

इसके आगे की दुख गाथा

सुनो बन्धु मै तुम्हे सुनाता

 

रात अँधेरी, स्वच्छ गगन था

झिलमिल तारे चमक रहे थे

इस समूह में न्द सितारे

इक आभा से दमक रहे थे

 

लोक कल्पना में उड़ने को

मन पंछी ने पर फैलाए

तभी एक तारा छूने को

मैंने कल्पित हाथ बढाए

 

इक नक्षत्र जिसे चाहा था

मुझसे वो भी दूर हो गया

और गगन की गहराई में

छोड़ अकेला कही खो गया

 

तभी जोर से हँसे सितारे

शायद मेरी नादानी थी

भूले से जिस राह चला था

राह वो बिलकुल अनजानी थी

 

वे बोले, संदेश हमारा

हर वसुधा-वासी से कहना

धरा पे रहने वाले मानव

सीखो सीमाओं में रहना

 

नक्षत्रों का यह संदेशा

पहुँचा केवल मेरे मन तक

कर्णहीन था हृदय बेचारा

उसके पीछे गया गगन तक

 



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