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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 गीत-सरिता : स्वर्ण मंदिर : एक अनुभूति

दिव्य-लोक जैसी ही छाया

उस प्राँगण मन पर छाई थी

दिव्य ताल की लहर-लहर पर

स्वर्णिम झिलमिल परछाई थी

संगमरमरी शोभित आभा

विद्युत बल्बों से आलोकित

बीच ताल के स्वर्ण महल इक

करे आत्मा को आन्दोलित

अदभुत परे कल्पना से सब

सरगम औ प्रकाश का संगम

चित्त हो गया शान्त शून्य तब

कर अनुभव वह दृश्य विहंगम

रोमांचित हो उठी चेतना

देख भव्यता उस मंदिर की

जगमग-जगमग, झिलमिल-झिलमिल

चकाचौंध वह प्रेम-नगर की

पुलकित हुए प्राण औ तन-मन

देखी श्रद्धा गुरु में गहरी

उतर गयी थी अन्तर्मन में

पावन शबदों की सुर-लहरी

स्वर्णिम क्षण था वह जीवन का

हुई तरंगित जीवन-धारा

किया स्वर्ण मंदिर का दर्शन

हुआ हृदय में नव उजियारा

 



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