दिव्य-लोक जैसी ही छाया उस प्राँगण मन पर छाई थी दिव्य ताल की लहर-लहर पर स्वर्णिम झिलमिल परछाई थी संगमरमरी शोभित आभा विद्युत बल्बों से आलोकित बीच ताल के स्वर्ण महल इक करे आत्मा को आन्दोलित अदभुत परे कल्पना से सब सरगम औ’ प्रकाश का संगम चित्त हो गया शान्त शून्य तब कर अनुभव वह दृश्य विहंगम रोमांचित हो उठी चेतना देख भव्यता उस मंदिर की जगमग-जगमग, झिलमिल-झिलमिल चकाचौंध वह प्रेम-नगर की पुलकित हुए प्राण औ’ तन-मन देखी श्रद्धा गुरु में गहरी उतर गयी थी अन्तर्मन में पावन ‘शबदों’ की सुर-लहरी स्वर्णिम क्षण था वह जीवन का हुई तरंगित जीवन-धारा किया स्वर्ण मंदिर का दर्शन हुआ हृदय में नव उजियारा
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