हैं बंधन अदृश्य , बँध रहे जिसमें चाँद –सितारे नाम दिया है प्रेम का जिसमें बँधते हृदय हमारे
कण-कण में सृष्टि सँजोए जिसका सूक्ष्म स्पंदन हो प्रेरित जिससे करती है लता वृक्ष –आलिंगन
जिससे प्रेरित रवि वसुधा का आकर तिमिर हटाता झिलमिल सतरंगी किरणों से जग को नित्य जगाता
जिसके कारण नदिया भी मिल जाती हैं सागर से आओ मन का प्याला भर लें उसी प्रेम गागर से
हुआ प्रेम जब जड़-चेतन का जीव जगत का अंग बना वृक्षो ने पायी हरियाली औ’ पुष्पो का रंग बना
खग-कलरव वसुधा में गूँजा प्रेम-पुष्प की कली खिली सप्त सुरों के सिंचन से तब मन-वीणा को तान मिली
कहीं चकोरी ने टेरा अपने चकोर प्रियतम को कुहुक-कुहुक कोकिल भी करती उद्वेलित तन-मन को
प्रेम-पाश में बँधी गोपियाँ उस नटखट नागर से आओ मन का प्याला भर लें उस प्रेम-गागर से
|