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एक बूँद हूँ पर अन्तस में मैने सागर को पाया है, बनने को सागर बन जाउँ तटबन्धों से डर लगता है| सम्बन्धों से डर लगता है| अनुबन्धों से डर लगता है|
 गीत-सरिता : भोर की किरण कह

सत्यम् शिवम सुन्दरम

ईश्वर के वन्दे हैं हम

भोर की किरण कहे

धरती और गगन कहे

ये मलय पवन कहे

नवयुगी चलन कहे

हम चलें तुम चलो

तुम चलो हम चलें

दर कदम कदम चलें

मंजिले तो खुद ही पास आएँगी

ये दिशाएँ फिर से मुस्कराएँगी

भोर की किरन कहे

धरती और गगन कहे

नवसुरों में एकता की तान हो

भारतीयता का स्वाभिमान हो

वक्त की चुनौतियों के दौर में

दिव्य शक्तियों का आह्वान हो

तन की ये अगन कहे

साँस की तपन कहें

मन की भी लगन कहे

नवयुगी चलन कहे

हम चलें तुम चलो,

तुम चलो, हम चलें

दर कदम-कदम चलें

फसलें प्यार की भी लहलाएँगी

अपना प्यारा-सा चमन सजाएँगी

भोर की किरन कहे

धरती और गगन कहे

जिन्दगी नहीं कभी भी हारती

खुद को मुश्किलों में भी संवारती

आँधियों से लड़ते आये हम सदा

जलजलों ने भी उतारी आरती

ग्रीष्म की चुभन कहे, प्यासा ये चमन कहे

पतझरी पवन कहे, पथ की ये थकन कहे

हम चलें तुम चलो, तुम चलो हम चलें

दर   कदम-कदम   चले

फिर बहारें गीत गुनगुनाएँगी

बुलबुलें भी चहक-चहक गाएँगी

भोर की किरन कहे

धरती और गगन कहे

!



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